चित्तौड़गढ़। शारदीय नवरात्रि के शुभ अवसर पर आज राजस्थान के ऐसे देवी मंदिर के दर्शन जहां एक ही शिला पर विराजती हैं 9 देवियां। मेवाड़ के पूर्व राजघराने की कुलदेवी बाण माता के दर्शन के लिए देश-विदेश से भक्त पहुंचते हैं। चित्तौड़गढ़ दुर्ग में विराजी माता की पूजा भगवान एकलिंग नाथ के समान ही होती है। वैशाख शुक्ल अष्टमी को चित्तौड़गढ़ दुर्ग में देवियों की स्थापना हुई थी, उसी दिन को चित्तौड़गढ़ की स्थापना दिवस के रूप में जाना जाता है। जिसे चित्तौड़ी आठम कहते हैं। बाण माता की पहली मूर्ति बप्पा रावल ने 7वीं सदी में लगवाई थी, लेकिन आक्रमणकारियों ने मूर्ति को खंडित कर दिया। इसके बाद महाराणा सज्जन सिंह ने 18वीं सदी के अंत में दूसरी मूर्ति की स्थापना हुई, जो मूल स्वरूप के आगे स्थापित की गई। वर्तमान में बाण माता की दोनों मूर्तियां मंदिर में स्थापित हैं। मूल मूर्ति को श्रृंगार से ढंक दिया जाता है। यहां आज भी पूर्व राजपरिवार के सदस्य खास मौकों पर कुलदेवी का आशीर्वाद लेने आते हैं।
रावल गुजरात से लाए थे प्रतिमा
पुजारी मुकेश पालीवाल ने बताया- बप्पा रावल बाण माता की प्रतिमा गुजरात से लाए थे। रावल का जन्म और लालन-पालन गुजरात में ही हुआ था। वहां से विस्थापित होकर वे एकलिंग नाथ जी की तलहटी तक पहुंचे। 7वीं सदी में रुहिल वंश के राजा बप्पा रावल थे। रावल की उपाधि पुरोहितों द्वारा लालन-पालन करने के कारण मिली थी। 13वीं सदी में यह उपाधि महाराणा में बदल गई। चित्तौड़गढ़ पर जीत हासिल करने के बाद बप्पा रावल ने चित्तौड़ को मेवाड़ की राजधानी बनाया। जीत के बाद वे सूरत गए। सूरत के पास देवबंदर द्वीप पर इस्फगुल राजा का शासन था। उसकी बेटी के साथ बप्पा रावल ने विवाह किया और उसे चित्तौड़गढ़ लेकर आए। देवबंदर से ही बप्पा रावल बाण माता की प्रतिमा लेकर चित्तौड़गढ़ आए थे।
हंसवाहिनी हैं बाण माता
पुजारी ने बताया कि प्रतिमा के 4 हाथ हैं। दो ऊपर की ओर उठे हुए हैं और दो हाथ नीचे की ओर हैं। दायें हाथों में अंकुश और बाण और बायें हाथों में पाश और धनुष हैं। दुर्गा सप्तशती के 8वें अध्याय के प्रथम श्लोक में इनका जिक्र है। यह हंसवाहिनी प्रतिमा है। हंसवाहिनी को ब्रह्मा से उत्पन्न शक्ति माना गया है। शक्ति स्वरूप मातेश्वरी की प्रतिमा प्राचीन प्रतिमा है। उनके मस्तक पर मुकुट, कानों में कुंडल, गले में हार, हाथों और पांवों में गहने हैं। मेवाड़ में इन्हें बाण माता या बयाण माता कहा जाता है। जबकि गुजरात में इन्हें ब्रह्माणी के नाम से पूजा जाता है।
श्रृंगार के पीछे छिपी है मूल प्रतिमा
7वीं सदी में बप्पा रावल ने मान मौर्य से मेवाड़ हासिल किया। इसके बाद मंदिर में बाणमाता की मूर्ति स्थापित की। 13वीं सदी में महाराणा हम्मीर सिंह ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। बताया जाता है कि महाराणा अमर सिंह ने मुगलों के साथ एक संधि की थी। इसके अनुसार दुर्ग पर कोई निर्माण नहीं होगा और कोई निवास भी नहीं करेगा। ऐसे में 200 साल तक यह दुर्ग वीरान रहा। 15वीं सदी में आक्रमणकारियों के हमले में यह मूर्ति खंडित हो गई। महाराणा राज सिंह ने यह संधि तोड़ी। इसके बाद 18वीं सदी के अंत में मेवाड़ महाराणा सज्जन सिंह ने जीर्णोद्धार किया और बाणमाता की संगमरमर की हूबहू प्रतिमा बनवाई।
दोनों प्रतिमाएं सफेद मार्बल की
दोनों प्रतिमाएं सफेद मार्बल की हैं। लगभग एक जैसे आकार और मुद्रा में बनवाई गईं हैं। ऐसे सुंदर मुखारविंद वाले विग्रह बहुत कम मिलते हैं। मंदिर का निर्माण उत्तर भारतीय नागर शैली में हुआ। इसके अलावा शिखर पर भी काले पत्थर पर 12 नृत्य करती हुई प्रतिमाएं हैं, जो अब 4 ही रह गई हैं। सभी नृतिकाएं वाद्य यंत्र बजाती हुई अलग-अलग मुद्राओं और श्रृंगार में दिखाई देती हैं। मंदिर में 2 पिलर है। एक पिलर में घंटियां बनी हुई है तो दूसरा पिलर प्लेन है। इससे यह अनुमान लगाया जा रहा है कि जीर्णोद्धार के समय मंदिर के पास से जो भी पिलर मिला होगा, उसे जोड़ दिया गया है।